- डॉ. ओमप्रकाश कादयान
जब हम छोटे थे, बचपन की मस्ती में मस्त थे। बचपन में हमें पेड़ों की उपयोगिता व महत्व के बारे में बहुत ज्यादा पता नहीं था। हम इस बात पर भी ध्यान नहीं देते थे कि हमारी हर सांस पेड़ों के कारण कायम है। हम इस बात पर भी ध्यान नहीं देते थे कि अगर पेड़ नहीं होंगे तो हम जीवित ही नहीं रहेंगे। ना इस बात का ध्यान था कि पेड़ों के बिना ये धरती एक बंजर भूमि के अलावा कुछ नहीं होगी। इसके कई कारण थे। एक तो ये कि हम अखबार कम पढ़ते थे। टेलीविजन कम देखते थे। दूसरा ये कि पेड़ों की संख्या इतनी अधिक थी कि पेड़ों की कमी खलती ही नहीं थी। आंगन में नीम, शीशम, आम, जामुन या अन्य कोई ना कोई पेड़ होता ही था। गितवाड़ों में कीकर, नीम, पीपल, शीशम, बेरी आदि में से कुछ पेड़ होते ही थे। करीब हर गाँव की अपनी खाली पड़ी जमीन होती थी जिसे बणी या चारागाह कहते थे। यहां भरपूर पेड़ होते थे।
घरों में, विद्यालयों में, सरकारी संस्थानों में, अस्पतालों में पेड़ों की संख्या खूब होती थी। हमें विरासत में ढेर सारे पेड़ इसलिए मिले क्योंकि हमारे बड़े पेड़ लगाने में विश्वास रखते थे, काटने में नहीं। उनका कहना था कि राहगीर के लिए छाया रहे इसलिए पेड़ लगाना जरूरी है। खेतों में काम करते समय हाली-पाली या अन्य काम-धंधा निपटाकर या भरी-पूरी गर्मी से तपती दोपहरी में पेड़ों की गहरी छाया में बैठ अपने को धन्य समझते थे। जोहड़ तालाबों पर पशुओं के लिए, राहगीरों के लिए या ग्रामीणों के लिए गर्मियों में छाया रहे तथा हरा-भरा वातावरण रहे इसलिए पेड़ लगाते थे।
मुझे अब भी याद है कि जब हम सरकारी विद्यालय के छटी कक्षा में पढ़ते थे तो छुट्टी होने के बाद हम पड़ोसी साथी या भाई के साथ स्कूल बैग घर रखकर गर्मी से छुटकारा पाने, मनोरंजन करने, खेलने, शारीरिक कसरत करने के लिए जोहड़-तालाबों पर जाया करते थे। हमारे गांव के चारों ओर बहुत से जोहड़ तथा पक्के तालाब थे। इन तालाबों तथा जोहड़ों के किनारे पेड़ों की भरमार होती थी। एक नहीं, दो नहीं, बल्कि 50-100 बच्चे नहाने व खेलने के लिए एकत्र हो जाते थे। हममें से बहुत से बच्चे बरगद, नीम, शीशम,आदी पेड़ों पर चढ़कर पानी में छलांग लगाते थे। विशालकाय बरगद और पीपल की गोद में कई-कई घंटे खेलते। 10-20 बच्चे एक साथ उनके ऊपर चढ़ते, टहनियों से लटकते, झूला-झूलते, किंतु बरगद और पीपल दादा ने कभी शिकायत नहीं की। उल्टे वो हमें अपनी गोद में खिलाते, हमें छाया देते, हमें लाड करते।
उस समय पेड़ों की उपयोगिता पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता था लेकिन उनका भरपूर उपयोग करते थे। इन्हीं पेड़ों पर हजारों पक्षी भी दोपहर को विश्राम करते, चहचाते।
इन्हीं पेड़ों पर पक्षियों के सैकड़ों घोंसले होते थे। जिनमें इनकी वंशवृद्धि होती थी। गौरैया, गुरसल, मैना, तोता, छोटी-बड़ी अनेक चिड़ियां, खाती चिड़ा, नीलकंठ, उल्लू, कोतरी, कौवा, बुलबुल, चकोर, कोयल, बाज, मोर आदि अनेक पक्षियों से पेड़ रौनक रहते, हालांकि उल्लू रात को ही निकलते थे, कोतरी व उल्लू कभी-कभी दिन में दिखाई देते थे पर बैठे हुए, उड़ते नहीं थे। बाज कभी-कभी आते थे। उसके आने से खलबली मच जाती। कई पेड़ों के खरखोड़ों में उल्लू, कोतरी, चिड़ियां, नीलकंठ, खाती चिड़ा व तोते के अंडे या बच्चे होते तो कई बार वो खरखोड़ों से झांकते तो बहुत अच्छा लगता। हम बच्चे थे इसलिए पक्षियों के अंडे, चूजे देखकर अच्छा लगता था। हमें उनके संरक्षण का भी पूरा ध्यान था। पेड़ अपने आसपास एक पूरी दुनिया बसा ही लेते हैं। ये मनुष्यों, पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों, सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। क्योंकि पेड़ होते ही ऐसे हैं। वो अपने लिए ना जीकर दूसरों के लिए जीते हैं। वैसे भी पेड़ समस्त प्राणी जगत के लिए जीवन व जीने का आधार होते हैं।
नहा धोकर हम उसके बाद बणी में चले जाते थे, वहां हजारों जाल के पेड़ होते थे, जो अब लुप्त प्राय हो गए हैं। चिंता का विषय है कि जाल के नए पौधे व पेड़ नहीं पनप रहे हैं। उनके अनुकूल हमने वातावरण नहीं छोड़ा। बणी में हजारों आड़े-तिरछे, सीधे-खड़े जाल़ के पेड़ थे जिन पर गर्मियों में मीठी पीलें लगती थी, दो-तीन रंग की। हम पेड़ों पर चढ़कर खूब पील खाते थे। बणी में लगे लेहसवे के फल तथा नीम की निंबोली भी खूब खाते। बरसात से पूर्व जामुन खाने को मिल ही जाती थीं। शहतूत के पेड़ों से काले-सफेद, खट्टे-मीठे शहतूत खाकर मजा आ जाता। जोहड़ों पर लगे बड़ व पीपल से बरमंटी खाते थे। बड़े होने पर पता चला कि ये बरमंटी व गूलर के फल बड़े औषधीय व ताकत देने वाले होते हैं। उस समय तो बचपन का टेस्ट था। बणी में आड़े-तिरछे जाल के पेड़ों पर भी हम कई तरह के खेल खेलते थे। इन्हीं जाल के टहनियों से हम तीर-कमान बनाकर रामलीला भी खेलते थे। जाल की टहनियों से देसी हॉकी जिसे हम खुलिया कहते थे बनाकर तथा हिंगोल पेड़ के गोल-गोल व कठोर फल के गेंद बनाकर हॉकी खेलते थे। यही अभ्यास हमें हॉकी मैदान में ले गया तथा हमें अच्छा खिलाड़ी बना गया। कदम के गोल, नरम (ऊपर से), सुंदर फलों से हम गेंद-गेंद खेलते थे एक दूसरे से कैच-कैच करके।
लचकदार पेड़ों से लटककर खूब झूला झूलते, मज़े लेते। कई बार टहनी टूट जाती तो धड़ाम से जमीन पर गिरते भी। फिर उठ जाते, फिर वही शरारतें करते। तीज-त्योहार के मौके पर तो पेड़ों का महत्व और बढ़ जाता। हरियाली तीज पर सावन के झूले पड़ जाते। सवासण छोरियां, बहुएं, औरतें तथा बच्चे ऊँचे व मजबूत पेड़ों की टहनियों पर झूला डालकर पींग बढ़ाते। औरतें इस मौके पर लोकगीत भी गाती। हम बच्चों को भी झूलने का मौका मिल ही जाता था। झूले के बहाने पेड़ों से हमारा खास तरह का लगाव हो जाता था। इतना ही नहीं पीपल, शहतूत आदी के पेड़ों के पत्तों से हम कई तरह की पीपनी बनाकर उन्हें बजाते थे। उनसे निकलने वाले सुर सुनने में बेशक अधिक आकर्षित न करते हों, किंतु ये सुर जीवन संगीत के सुर थे। इनमें जीवन का राग छुपा हुआ था। हम बड़ों के लिए न सही, किंतु बच्चों के लिए इन सुरों का बहुत महत्व था। सुबह-सुबह घूमने जाते तो नीम या कीकर की दातुन करते, जिससे दांत मजबूत व साफ होते थे। नीम की कोंपले खाकर शरीर के बहुत से रोग दूर होते। चर्म रोगों में नीम के पत्ते उबालकर नहा लेते थे। ये देसी किंतु मजबूत टोटके थे। नीम, कीकर पर लगे गोंद से गोंद बना लेते थे।
सर्दियों में खेत-खलिहानों में चक्कर-ताड़ी लेकर या साइकिल का टायर लेकर घुमाते हुए निकल जाते तो रास्ते में पड़ने वाले बेरी के पेड़ पेड़ों से बेर तोड़कर खाने में अलग ही मजा था। खट्टे-मीठे बेरों के लालच में तो हम कई बार दोपहर को या रात को बागों में नाजायज तरीके से घुस जाते तथा बेरों की झोली भरकर या बड़ी जेब में भरकर बाहर आकर बंटवारा करते, सभी बच्चे खाते थे। हालांकि पकड़े जाने का डर बराबर बना रहता।
हमारे आंगन में नीम के पेड़ पर मंा ने गिलोय की बेल चढ़ा रखी थी। कहती थी कि ये बड़े काम की है। वो पूरे नीम पर हर वर्ष छा जाती। उसके पत्तों के बीच कई तरह के छोटे पक्षी अपने घोंसले भी बनाए हुए थे। एक बार गलती से उसमें भैंस की बेल उलझ गई तथा वे जड़ से उखड़ गई। मां को बड़ा दुख हुआ। मां ने कहा कि अब तो इसे काट कर रख लें। औषधि के रूप में काम आ सकती है। बड़े भाई ने उसे चाकू से काट कर रख लिया। नीम पर चढ़ी ऊपर की बेल की टहनियां नीम पर लटकी रही गई। फिर उनमें कुछ घोंसले भी थे, इसलिए नहीं काटी। ऊपर की टहनियों से जमीन का कोई संपर्क नहीं रहा। ना ही कोई जड़ रही। फिर भी हमने एक कमाल देखा कुदरत का।
करीब एक सप्ताह बाद पेड़ से हवा में लटकी गिलोय की टहनियों से जड़ निकलनी शुरू हुई। दो-तीन सप्ताह में वो ज़मीन तक आ गई। उन जड़ों ने जमीन से पोषण लेना आरंभ किया तथा धीरे-धीरे पूरी बेल हरी हो गई। नए पत्ते फूटे, शाखाएं फैली तो मां को बड़ी खुशी हुई। हमने बचपन में इस तरह की अद्भुत घटनाओं से जीवटता सीखी।
अगर हम हार ना माने तो जीत हो ही जाती है। इसी तरह एक बार गिलोय की बेल का छोटा सा टुकड़ा कहीं से उड़ कर आया तथा हमारे मकान की दीवार में ईंटों की दरार में फंस गया। मैंने देखा तो सोचा कि फंसा रहेगा। सूख कर निकल जाएगा। किंतु मैं अचंभित तब हुआ जब करीब 20-25 दिन बाद उस पर नए पत्ते देखे। उसमें से जड़ फूटकर जमीन तक पहुंच गई थी। बारिश के दिनों में दो-तीन माह में तो वो टूटी टहनी बेल बनकर पूरी दीवार पर फैल चुकी थी। कुछ हिस्सा जमीन पर फैल चुका था। बचपन में पेड़-पौधों से सीखी यही जीवटता मेरे बार-बार काम आई। मैंने जीवन में कभी हार नहीं मानी।
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